गौ-सेवा

गाय जंगल का एक निरपराध जानवर था । स्वार्थी मानव ने उसे अपने घर में बाँधकर उस पर अपने आपकी मोहर लगा दी थी, परन्तु गाय आदमी के साथ बेहद वफादारी से रही है। गाय ने रुखी-सूखी घास चबाकर अपना जीवन-यापन किया है और वह मानव के लिए अमृत के तुल्य दूध देती रही हे।

और वह मानव के लिए अमृत के तुल्य दूध देती रही हे। मानव जब से शिकारी और जंगली जीवन से बाहर निकला तभी से गाय ने उसे साथ दिया था और देती रही है। आदमी के लिए गाय के बछड़े-बछड़ियाँ अपनी माँ का दूध पीने से लगभग वंचित रहे हैं।

आदमी के लिए गाय के बछड़े-बछड़ियाँ अपनी माँ का दूध पीने से लगभग वंचित रहे हैं। गाय के बछड़ों ने बड़े होकर उम्र भर आदमी के भरण-पोषण के लिए कन्धे पर जुआ उठाकर और पसीना बहाते हुए बिना किसी प्रकार का वेतन लिए भूखे-प्यासे रहकर बंजर जमीनें जोती थीं और अनाज पैदा किया था तथ करते आ रहे हैं। ट्रेक्टर नाम का यह यंत्र तो कल पैदा हुआ है । अनाज खाने वाले किसान हों या व्यापारी हों, नेता हों या अफसर या किसी भी व्यवसाय के हों या साधु-संत भी, परन्तु प्रत्येक अनाज खाने वाला ओर दूध पीने वाला आदमी गाय का ऋणी है। कृषिप्रधान देषों मे भारत तो उससे उऋण हा ही नहीं सकता ।

लगतार की जाने वाली निष्काम सेवा ओर अनन्त उपकारों के बदले गाय को क्या दिया जाता है, यह हम सब देख रहे हैं। गाय और बैल जब बूढे हो जाते है और अपने अन्तिम थोड़े से समय के लिए जर्जर और अषक्त हो जाते है तब वे ‘आर्थिक दृष्टि से पौंसाते नहीं’ यह स्वार्थी आदमी की घड़ी-घड़ाई आधुनिक युग की भाषा है। हमारे बैल और गाय पेंषन के अधिकारी थे, जबकि उन्होने कभी वेतन भी नहीं लिया । ऐसे उपयोगी ओर उपकारी पषुओं को जो मानव-परिवार के सदस्यों की तरह रह रहे हों, को अन्त में छुरी के नीचे दे देना स्वार्थी मानव की चरम निष्ठुरता है। मानव ने सारे कानून-कायदे अपने ही पक्ष में बना रखे हैं ।

वह गाय और बैलों जैसे उपकारी पषुओं को तनिक भी न्याय न दे सका। निःसन्देह आज का सभ्य कहलाने वाला आदमी गाय के समक्ष नमकहराम है। गाय ओर बैलों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी से अपनी जिन्दगी भर आदमी के हित में निःस्वार्थ देवा दी है और बदले में वे कुछ भी नहीं चाहते रहे । भरसक काम लेेते हुए भी समय पर उन्हें चारा डालना मनुष्य की मेहरबानी पर निर्भर रहा है। वे बिना मतलब लाठियों और साटों की मार भी खाते रहे हैं । अन्त मे मरने के थोड़े दिनों पहले अषक्त होने पर उन्हें तनिक सेवा की आवष्यकता थी ओर है, जिससे कि वे शान्ति की मौत मर सके । किन्तु खेद है कि इंसान गाय ओर बैलों के प्रति किये जा रहे व्यवहार के कारण इंसानियत से दूर हट चुका है और मानवीय व्यवहार का उल्लंघन करके वह उन्हें कसाई को देना चाहता है ।

हे मेरी बे-गुनाह गाय ! तेरी पुकार तो सिर्फ भगवान ही सुन सकता है। गौ-सचमुच ही कामधेनु है जिसने विषेषकर भारत को दिया ही दिया है, लिया कुछ नहीं । मनुष्य को जन्म देने वाली माताओं की अपने बच्चों को दूध पिलाने की एक सीमा है, परन्तु गाय तो मानव को उम्र भर दूध पिलाती है और खेती की दिषा में भी सर्वजनहिताय भरण-पोषण का आधार बनती आई है, इसलिए भारत में उसे माता का स्थान प्राप्त है, लेकिन उसके साथ माता जैसा व्यवहार नहीं है। व ह काफी दुःखी है और खेद है कि उसको सेवा की तुलना में आवष्यक व्यवस्था और सम्मान नहीं दिया जाता ।

मोर को राष्ट्रीय पक्षी मान लिया गया था और अब गोडावण को भी राज्यपक्षी मान लिया गया है, शेर को राष्ट्रीय पषु माना है और उसकी सुरक्षा के लिए राष्ट्र का काफी धन भी खर्च किया जा रहा है परन्तु गाय के लिए राष्ट्र और राज्य ने क्या किया है, यह एक विचारणीय विषय है । सर्वप्रथम राष्ट्रीय पषु तो गाय और बैलों को ही माना जाना चाहिए था, क्यों कि वे सभी दृष्टिकोणों से राष्ट्रीय पषु घोषित किये जाने के अधिकारी भी थे । कम से कम उन्हें भारत की भूमि पर तो अवध्य घोषित किया जाना था ओर उनकी उचित व्यवस्था भी की जानी थी ।